0 0 lang="en-US"> भारत में राज्यपाल का पद ख़त्म करने की मांग कितनी सही - ग्रेटवे न्यूज नेटवर्क
Site icon ग्रेटवे न्यूज नेटवर्क

भारत में राज्यपाल का पद ख़त्म करने की मांग कितनी सही

Spread the Message
Read Time:9 Minute, 46 Second
त्कालीन राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी के साथ महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदेभारत के सुप्रीम कोर्ट ने पिछले हफ़्ते चिंता जाहिर की कि यदि राज्यपाल के निर्णयों से राज्यों की सरकार गिर जाती है तो लोकतंत्र कमजोर हो सकता है.

 

देश की शीर्ष अदालत का इशारा महाराष्ट्र के तत्कालीन राज्यपाल की ओर था, जिन्होंने पिछले साल विधानसभा में विवादित तरीके से विश्वास मत हासिल करने को कहा था , जिसके बाद वहां की सरकार गिर गई थी.

महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की पार्टी शिवसेना सत्तारूढ़ गठबंधन में सबसे बड़ी पार्टी थी लेकिन विद्रोहियों ने उनकी पार्टी को तोड़ दिया और केंद्र में सरकार चला रहे नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के साथ एक नया गठबंधन बना लिया.

तब राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने विश्वास मत साबित करने के लिए कहा था लेकिन विश्वास मत से पहले ही उद्धव ठाकरे ने ये ‘स्वीकार करते हुए’ इस्तीफ़ा दे दिया था कि उनके पास पर्याप्त समर्थन नहीं है.

पिछले सप्ताह इस मामले से संबंधित याचिकाओं की सुनवाई करते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि राज्यपाल की ओर से सरकार को विश्वास मत हासिल करने के लिए कहना ‘गलत’ था.

उन्होंने कहा, “गवर्नर ऐसी जगह दखल नहीं दे सकते हैं जहां उनके कदम सरकार गिरने की वजह बनें. ये हमारे लोकतंत्र के लिए बहुत गंभीर बात है.”

सिर्फ ये ही नहीं. केरल और तेलंगाना की सरकारों ने भी आरोप लगाया है कि राज्यपालों ने विधेयकों पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया.

“लोकतंत्र का अंपायर”

तेलंगाना की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया और आरोप लगाया कि राज्यपाल तमिलिसाई सौंदरराजन “संवैधानिक गतिरोध” पैदा कर रही हैं.

तेलंगाना में क्षेत्रीय पार्टी बीआरएस की सरकार है, जबकि केरल में वामपंथी दलों के गठबंधन की सरकार है. इन दोनों राज्यों और महाराष्ट्र में राज्यपालों की नियुक्ति उनकी विपक्षी पार्टी भाजपा ने की थी.

भारत में राज्यपालों की नियुक्ति प्रधानमंत्री की सलाह पर राष्ट्रपति करते हैं. राज्यपाल राज्य के संवैधानिक प्रमुख होते हैं.

हालांकि उनकी औपचारिक भूमिका है. वे विधायी, कार्यकारी और विवेकाधीन शक्तियां रखते हैं.

राज्य के चुनाव के दौरान अगर किसी राजनीतिक संकट जैसी स्थिति आती है और पार्टियों के बीच सरकार बनाने की स्थिति साफ नहीं होती तब राज्यपाल तय कर सकते हैं कि कौन सी पार्टी सरकार बनाने के लिए सबसे अच्छी स्थिति में है. क्रिकेट की उपमा के सहारे कहें तो राज्यपाल से “लोकतंत्र का अंपायर” होने की उम्मीद की जाती है.

लेकिन, भारत में लंबे समय से राज्यपालों पर राजनीतिक पक्षपात और केंद्र सरकार के इशारे पर काम करने के आरोप लगते रहे हैं.

इतिहासकार मुकुल केसवन कहते हैं कि जिस तरह से उनकी नियुक्ति होती है और उनके कार्यकाल को लेकर अनिश्चितता रहती है, उससे गवर्नर “निष्पक्ष अंपायर की बजाए राजनीतिक परिस्थितियों में काम आने वाले केंद्र सरकार के नुमाइंदे बन जाते हैं.”

तेलंगाना की राज्यपाल तमिलिसाई सौंदरराजन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ, जिनकी सरकार ने उन्हें नियुक्त किया थावफ़ादारी के लिए पद

केंद्र सरकारें पारंपरिक तौर पर अपने विरोधियों की ओर से नियुक्त राज्यपालों को हटाती रही हैं. इससे राज्यपाल के दफ़्तर का और अधिक राजनीतिकरण होता रहा है.

एक अध्ययन में पाया गया कि 1950 और 2015 के बीच केवल एक चौथाई राज्यपालों ने पांच सालों का कार्यकाल पूरा किया. 37 फीसदी राज्यपाल एक साल से भी कम समय तक पद पर रहे.

परंपराओं को धता बताते हुए राज्यपालों को आमतौर पर निर्वाचित राज्य सरकार से परामर्श किए बिना सत्ताधारी दल की ओर से नियुक्त किया जाता है. इस वजह से संघीय और राज्य सरकारों के बीच के संबंधों में खटास आई है.

दशकों से कई राज्यपालों को निर्वाचित राज्य सरकारों के सुचारू कामकाज में दख़ल देते देखा गया है. ये राज्य सरकारें केंद्र सरकार की विरोधी दलों की थीं.

1980 के दशक में आधा दर्जन भारतीय राज्यों में शासन करने के बाद बीके नेहरू ने खु़द को एक बार “सत्तारूढ़ दल के एक थक चुके रिटायर्ड सदस्य के तौर पर बताया था, जिनके लिए गवर्नरशिप एक प्रकार की शानदार सेवानिवृत्ति थी.”

ऐसे में ये आश्चर्य नहीं है कि पार्टी के वफादारों को अक्सर उनकी वफादारी के कारण इस पद के लिए चुना जाता है.

प्रोफे़सर अशोक पंकज ने एक अध्ययन में पाया कि 1950 से 2015 तक भारत में 52 फ़ीसदी राजनेता या 26 फ़ीसदी रिटायर हो चुके नौकरशाह राज्यपाल बने. इनके अलावा न्यायाधीश, वकील, रक्षा अधिकारी और शिक्षाविद शामिल थे. सभी राज्यपालों का पांचवां हिस्सा पूर्व सांसद या विधायक थे.

इसीलिए बहुत से लोग मानते हैं कि राज्यपाल के पद को समाप्त करने का वक़्त आ गया है.

‘द प्रिंट’ के संपादक शेखर गुप्ता कहते हैं, “अगर एक दिन ये पद खत्म भी हो गया तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा.”

हालांकि ऐसा करने की तुलना में ये कहना आसान है.

2022 में मंत्रियों के शपथ समारोह में पंजाब राज्य के राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित (बाएं से दूसरे)नियुक्ति को ज़्यादा पारदर्शी बनाएं

इतिहासकार मुकुल केसवन का मानना है कि यदि “राज्यपालों का अस्तित्व खत्म नहीं किया जा सकता है तो अगला सबसे अच्छा क़दम होगा उनकी शक्तियों को कम करना”

द विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी थिंक-टैंक से जुड़े लोगों ने भारत के राज्यपालों पर एक विस्तृत अध्ययन किया है. जिसका शीर्षक है ‘हेड्स हेल्ड हाई: सैल्वेजिंग स्टेट गवर्नर्स फॉर ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी इंडिया’.

इसमें सुझाया गया है कि राजभवन से छुटकारा पाने के बजाए उसमें सुधार किया जाए.

थिंक-टैंक के लेखकों का कहना है कि राज्यपालों को नियुक्त करना और हटाना सत्तारूढ़ दल का विशेषाधिकार नहीं होना चाहिए और इसे “ज़्यादा संघीय और सहकारी” तरीके से किया जाना चाहिए और राज्यपाल के कामों के लिखित कारणों को सार्वजनिक किया जाना चाहिए.

हेड्स हेल्ड हाई: सैल्वेजिंग स्टेट गवर्नर्स फॉर ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी इंडिया के लेखक ललित पंडा कहते हैं, ”राज्यपाल की ज़िम्मेदारी कार्यपालिका या न्यायाधीशों को सौंपने से दोनों के राजनीतिकरण का जोखिम होगा. ”

वकील केवी विश्वनाथन भी कुछ इसी तरह की राय रखते हैं. उनका मानना ​​है, “समस्या राज्यपाल के दफ़्तर के साथ नहीं है, बल्कि उनके दफ़्तर में आने वाले कुछ पदासीन लोगों के साथ है.”

“कार्यालय को ख़त्म न करें. राज्यपाल के कामों के कारणों को दर्ज करें, उन्हें सार्वजनिक करें और पारदर्शी बनाए. उन्हें नियुक्त करते समय ज़्यादा पारदर्शी रहें.”

Happy
0 0 %
Sad
0 0 %
Excited
0 0 %
Sleepy
0 0 %
Angry
0 0 %
Surprise
0 0 %
Exit mobile version