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श्राद्ध पक्ष और हिन्दू धर्म में उसका महत्व। जानिए कैसे निभाए इसकी परंपरा।

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भारतीय हिन्दू धर्म के अनुसार शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को प्रथम पूजनीय देव भगवन गणेशजी का जन्मदिन यानी गणेश महोत्सव मनाया जाता है ठीक उसी माह की ( भाद्रपद) की पूर्णिमा से पितरों की मोक्ष प्राप्ति के लिए पूर्वजों के प्रति श्रद्धा का महापर्व शुरू हो जाता है। इसको महापर्व इसलिए बोला जाता है क्योंकि नवरात्रि महोत्सव नौ दिन का होता है, दशहरा पर्व दस दिन का होता है, पर यह पितृ पक्ष सोलह दिनों तक चलता है।
श्राद्ध का मतलब श्रद्धा पूर्वक पितरों को प्रसन्न किए जाने से है। मान्यता के मुताबिक किसी के परिजनों का देहांत हो जान के बाद उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धा के साथ तर्पण किया जाता है उसे ही श्राद्ध कहते है। मान्यता है कि पितृ पक्ष में श्राद्ध कर्म और तर्पण करने से पितरों को शांति और मुक्ति मिलती है।
किसे अधिकार है पितृ श्राद्ध करने का
पुत्रों को श्राद्ध करने का अधिकार है लेकिन अगर पुत्र न हो तो पौत्र, प्रपौत्र या विधवा पत्नी भी श्राद्ध कर सकती है। वहीं पुत्र के न होने पर पत्नी का श्राद्ध पति भी कर सकता है।
श्राद्ध पक्ष का महत्व व मानव जीवन में इसका अधिकार
हिंदू धर्म की मान्यता के अनुसार अश्विन माह के कृष्ण पक्ष से अमावस्या तक अपने पितरों के श्राद्ध की परंपरा है। ज्योतिष गणना करने के अनुसार छठे माह भाद्र पक्ष की पूर्णिमा से (यानी आखिरी दिन से) 7वें माह अश्विन के प्रथम पांच दिनों तक यह पितृ पक्ष का महापर्व मनाया जाता है। सूर्य भी अपनी प्रथम राशि मेष से भ्रमण करता हुआ जब छठी राशि कन्या में एक माह के लिए भ्रमण करता है तब ही यह सोलह दिन का पितृ पक्ष मनाया जाता है।
उपरोक्त ज्योतिषीय पारंपरिक गणना का महत्व इसलिए और भी बढ़ जाता है क्योंकि शास्त्रों में भी कहा गया है कि आपको सीधे खड़े होने के लिए रीढ़ की हड्डी यानी बैकबोन का मजूबत होना बहुत आवश्यक है, जो शरीर के लगभग मध्य भाग में स्थित है और जिसके चलते ही हमारे शरीर को एक पहचान मिलती है। उसी तरह हम सभी जन उन पूर्वजों के अंश हैं अर्थात हमारी जो पहचान है यानी हमारी रीढ़ की हड्डी मजबूत बनी रहे उसके लिए हर वर्ष के मध्य में अपने पूर्वजों को अवश्य याद कर उनको श्रद्धाजंलि देनी चाहिए ।
श्राद्ध पक्ष से जुडी पौराणिक कथा
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस अवधि में हमारे पूर्वज मोक्ष प्राप्ति की कामना लिए अपने परिजनों के निकट अनेक रूपों में आते हैं। इस पर्व में अपने पितरों के प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता व उनकी आत्मा की शांति देने के लिए श्राद्ध किया जाता है और उनसे जीवन में खुशहाली के लिए आशीर्वाद की कामना की जाती है।
ज्योतिषीय गणना के अनुसार जिस तिथि में माता-पिता, दादा-दादी आदि परिजनों का निधन होता है। इन 16 दिनों में उसी तिथि पर उनका श्राद्ध करना उत्तम रहता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार उसी तिथि में जब उनके पुत्र या पौत्र द्वारा श्राद्ध किया जाता है तो पितृ लोक में भ्रमण करने से मुक्ति मिलकर पूर्वजों को मोक्ष प्राप्त हो जाता है। हमारे पितरों की आत्मा की शांति के लिए ‘श्रीमद भागवत् गीता’ या ‘भागवत पुराण’ का पाठ अति उत्तम माना जाता है।



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