तीर्थंकर की स्तुति करना छोटा काम नहीं है,बहुत बड़ा काम है।जब कोई बहुत बड़ा काम सामने होता है तब अंतर्द्वंद्व उत्पन्न हो जाता है।संकल्प-विकल्प का जाल उसी अंतर्द्वंद्व के धागों से बुना जाता है।आचार्य सिद्धसेन के मन में अंतर्द्वंद्व हो रहा था,संकल्प-विकल्प का चक्र चल रहा था।पांचवें श्लोक की संरचना के साथ सिद्धसेन संकल्प विकल्पों के जाल से मुक्त होकर स्तुति की तैयारी में लग गए। उन्होंने मनोबल को बटोरा और बोले-“प्रभु मैं आपकी स्तुति करने के लिए उद्यत हो रहा हूं,खड़ा हो रहा हूं,मैं मानता हूं कि मैं जदाशय अर्थात् जड आशय वाला हूं।” मेरा आशय प्रबुद्ध नहीं है। जहां चैतन्य नहीं होता वह आशय बन जाता है। आशय का मतलब है कि- अंतःकरण का वह स्थान जहां जड़ता है,चैतन्य की जागृति नहीं है।
आचार्य सिद्धसेन भगवान पार्श्वनाथ के व्यक्तित्व की विराटता का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि-“मैं उनकी स्तवना कर रहा हूं। जिनमें असंख्य गुण हैं और जो गुणों का समुद्र है, गुणों की खान है। वे गुण भी साधारण नहीं है!दीप्तिमान है।एक ओर उस महान आत्मा की स्तुति करने का इतना बड़ा काम हाथ में ले लिया जिनकी विशेषताएं असंख्य हैं,दूसरी ओर आचार्य कह रहे हैं-“मैं जदाशय हूं। एक बार थोड़ी निराशा-सी आ गई।संकल्प कमजोर होता प्रतीत हुआ। संकल्प कमजोर होता है तो आदमी थोड़ा सा कठिन काम आने पर भी हार मान लेता है,किंतु जिसका संकल्प मजबूत होता है वह बड़ी से बड़ी कठिनाई आने पर भी हार नहीं मानता। आचार्य ने कहा कि -ऐसे दीप्तिमान संख्यातीत गुणों के खान भगवान पार्श्वनाथ का स्तवन कर रहा हूं।”यह काम बहुत बड़ा है और मैं छोटा हूं।पर मैं देखता हूं कि एक बच्चा भी अपनी भुजाओं को फैला कर समुद्र की विशालता का वर्णन कर देता है। प्रभु! मैं भी तो आपके सामने एक बच्चा हूं कोई मुझे पूछेगा कि-पार्श्व प्रभु की स्तुति कर रहे हो?क्या तुम जानते हो पार्श्व का व्यक्तित्व कितना विशाल और विराट है? तो मैं भी अपनी भुजाओं को फैला कर कह दूंगा कि -“इतना विशाल और विराट है प्रभु पार्श्व का व्यक्तित्व।” जहां भी उलझन होती है आदमी समाधान खोजता है। सिद्धसेन जी ने भी उलझन को सुलझाने का पथ खोज लिया। जब बच्चा और समुद्र सामने आ गया तो समाधान हो गया। उन्होंने सोचा-बच्चा तो ऐसा करता ही है।कोई कुछ कहेगा तो मेरा बचपना सामने आएगा। लोग समझ लेंगे-यह एक बालक है। बालक के मन में उदग्र भावना जागृत हो गई और उसने एक अमाप्य समुद्र को मापने का प्रयत्न कर लिया इसलिए मुझे अब स्तुति के लिए उद्यत होने में कोई कठिनाई नहीं है। इसके अतिरिक्त अंत में रचित मुनि महाराज ने कहा कि – कागज के टुकड़े करना सरल है,कपड़े के टुकड़े करना थोड़ा कठिन है- लेकिन हमारे जीवन में सबसे ज्यादा कठिन कुछ है,तो वो है हमारे दिमाग के अंदर स्थित बैठा हुआ
अहम के टुकड़े करना बहुत मुश्किल हो जाता है । आज जो धर्म के नाम पर दुनिया में संप्रदायों की बाढ़ सी आ रही है ये सब क्या है? सिर्फ आदमी के अहंकार की देन है । क्योंकि संप्रदाय अहंकार का प्रतीक है,और धर्म जीने की कला का नाम है । अहंकार आदमी आदमी के बीच में भेद की रेखा खींचकर उसे विभक्त कर देता है – यानी संप्रदाय बांटने का, तोड़ने का काम करता है,जबकि धर्म जोड़ने का काम करता है । धर्म कभी तोड़ता नहीं बल्कि टूटे हुए हृदयों को जोड़कर एक- दूसरे के बीच प्रेम प्यार स्थापित करता है।
एस.एस.जैन स्थानक नादौन से मधुरवक्ता रचित मुनि जी महाराज के सानिध्य में विराजित तेजस मुनि महाराज ने संबोधन देते हुए
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