कुण्डलिनी जागरण एक सुखद और आत्मिक अनुभूति।

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कुण्डलिनी जागरण के लक्षण –
कुण्डलिनी जागरण के लक्षण और कुण्डलिनी जागरण के चमत्कार जानने से पहले हमे उसके आध्यात्मिक लाभ का पता होना चाहिए लेकिन कुंडलिनी जागरण के आध्यात्मिक लाभ की अभिव्यक्ति शब्दो में तो नहीं की जा सकती, परन्तु इतना कह सकते है की कुण्डलिनी शक्ति जागरण के पश्चात एक पूर्ण आनंद की स्थिति होती है ! इस स्थिति को प्राप्त करने के बाद कुछ पाना शेष नही रह जाता ! मन में पूर्ण संतोष, पूर्णशांति व परमसुख होता है ! ऐसे साधक के पास बैठने से दूसरे व्यक्ति को भी शांति अनुभूति होती है ! ऐसे योगी पुरुष के पास बैठने से दूसरे विकासी पुरुष के भी विकार शांत होने लगते है तथा योग व भगवान के प्रति स्रद्धा भाव बढ़ते है

कुण्डलिनी जागरण के लक्षण –
इसके अतिरिक कुण्डलिनी शक्ति जिसकी जाग्रत हो जाती है , उसके मुख पर एक दिव्य आभा, ओज, तेज व कान्ति बढ़ने लगती है ! शरीर पर भी लावण्य आने लगता है, मुख पर प्रसन्ता व समता का भाव होता है,दृष्टि में समता, करुणा व दिव्य प्रेम होते है ! विचारो में महानता व पूर्ण सात्विकता होती हे ! संक्षेप में हम कह सकते हे की जीवन का प्रतियक पहलु पूर्ण पवित्र उदात्त व महानता को छूता हुआ होता है |

इस पूरी प्रक्रिया के जहाँ spiritual लाभ है, वही एक लाभ अत्यधिक महत्वपूर्ण यह भी है की ऐसी योगिक प्रक्रिया करनेवाले व्यक्ति को जीवन में कोई रोग नहीं हो सकता है तथा कैंसर से लेकर हदयरोग, diabetes , मोटापा , पेट के समस्त रोग वात, पित, व कफ की समस्त विषमताएं स्वत: समाप्त हो जाती है ! व्यक्ति पूर्ण निरोगी हो जाता है ! आज के स्वार्थी व्यक्ति के लिए क्या यह कम उपलबधि है की बिना किसी दवा के सभी रोग मिटाये जा सकते है और जिंदगी भर निरोग, स्वस्थ, ओजस्वी, मनस्वी, तपस्वी बना जा सकता है |

ब्रह्म को जहाँ सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी और निर्विकार कहा जाता है वहाँ उसे मूढ़ भी कहा जाता है। मूढ़ का अर्थ है अज्ञानी गुम-सुम बैठा रहने वाला। उसकी न कोई इच्छा है न आकांक्षा ऐसा ब्रह्म विश्व के सृजन और पालन का उत्तरदायित्व भला कैसे पूरा कर सकता था। इसलिये उस जागृत करने की आवश्यकता पड़ी। इस आवश्यकता की पूर्ति उसकी शक्ति ने की। यह शक्ति या शिव तत्व और कुछ नहीं कुण्डलिनी ही है, वहीं ब्रह्म को क्रियाशील बनाती है। इस शास्त्रीय विवेचन की पुष्टि के लिये शरीरगत कुण्डलिनी तत्व का अध्ययन करना चाहिए।

मेरुदण्ड के भीतर सूक्ष्म प्रवाह और चैतन्य लोकों के निर्माण और उनके क्रिया कलाप का अध्ययन केवल भारतीय योगी ही कर सके हैं। इन सूक्ष्म लोकों का महत्व सर्वाधिक है। उनकी जानकारी से ही विश्व रहस्यों का उद्घाटन होता है। अलौकिक शक्तियाँ प्राप्त होती है, मनुष्य जीवन का वास्तविक अर्थ समझ में आता है और स्वर्ग, मुक्ति या परम पद प्राप्ति का द्वार खुलता है।

गुदा क्षेत्र में सोई हुई कुण्डलिनी दो धाराओं इड़ा और पिंगला (यह नाड़ियाँ ऋण विद्युत् और धन विद्युत् गत विद्युत् के आणविक स्वरूप में अन्तर है) में होकर ऊपर को उठती है और मस्तिष्क में जाकर मूढ़ ब्रह्म की चेतना को झकझोरती है। कुण्डलिनी यदि जागृत नहीं है तो इड़ा और पिंगला अपने सामान्य परिवेश में ही काम करती है, उसी प्रकार मस्तिष्क भी सामान्य ढीले-पोले काम करता रहता है पर जागृत कुण्डलिनी के आवेश को संभालना तो मस्तिष्क के लिये भी कठिन हो जाता है।

फिर वह बैठा नहीं रह सकता। कुछ न कुछ उछल-कूद तोड़-फोड़ बनाव शृंगार उसे करना ही पड़ता हैं। जिस व्यक्ति की कुण्डलिनी जाग जाती है वह जागृत अवस्था की तहत गम्भीर निद्रावस्था में भी उतना ही सचेतन रहता है। उसकी स्वप्न और जागृति में कोई अन्तर नहीं आता। जिस तरह जागृत अवस्था में वह किसी से बातचीत करता, सुनता, सोचता, विचारता, प्रेरणा देता, सहायता, सहयोग देता रहता है उसी प्रकार स्वप्नावस्था में भी उसकी गतिविधियाँ चला करती हैं।

उस अवस्था में वह किसी का भला भी कर सकता है और नई-नई जानकारियों के लिये अन्य ब्रह्माण्डों में सैर के लिये भी जा सकता है। अन्य ब्रह्माण्डों का अर्थ विद्धि रूप से सूर्य, चन्द्र, बृहस्पति, शुक्र, हर्शल, प्लूटो आदि से है। यह आश्चर्य लगने वाली बात उसके लिये बिल्कुल साधारण और सामान्य होती है। साधना में तीन व्यक्तियों को कभी कभी रात में ऐसे कुछ स्वप्न हो जाते हैं जिसमें उन्हें किसी भविष्य की घटना का पूर्वाभास मिल जाता है या किसी गोपनीय रहस्य का पता चल जाता है। वह कुण्डलिनी की ही शक्ति होती है।

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