हिमाचल में सैर का त्यौहार और उसका महत्व।

Read Time:14 Minute, 13 Second

हिमाचल प्रदेश अपनी समृद्ध संस्कृति, विभिन्न मेले, उत्सव और त्यौहारों के लिए प्रसिद्ध है। ये सारे त्यौहार जहां हम सबको हमारे अपनों से जोड़े रखने का काम करते हैं, वहीं हिमाचली जनता के लिए एक रोजगार का काम भी कर रहे हैं। हिमाचल में यूं तो साल भर बहुत से त्यौहार मनाए जाते हैं और लगभग हर महीने की सक्रांति यानि “सज्जी या साजा” को एक विशेष नाम से जाना जाता है और त्यौहार के तौर पर मनाया जाता है। क्रमानुसार भारतीय देसी महीनों केबदलने और नए महीने के शुरू होने के प्रथम दिन को सक्रांति कहा जाता है।लगभग हर सक्रांति पर हिमाचल प्रदेश में कोई न कोई उत्सव मनाया जाता है जोकि हिमाचल प्रदेश की पहाड़ी संस्कृति का प्राचीन भारतीय सभ्यता या यूं कहें तो देसी कैलेंडर के साथ एकरसता का परिचायक है।

16 सितम्बर यानी अश्विन महीने की सक्रांति को काँगड़ा ,मण्डी ,हमीरपुर ,बिलासपुर और सोलन सहित अन्य कुछ जिलो में सैर या सायर (Sair Festival or Sayar Festival of Himachal)का त्यौहार काफी धूमधाम से मनाया जाता है

अश्विन महीने की सक्रांति को सैर उत्सव या सायर उत्सव
सैर उत्सव या सायर उत्सव भी इन्हीं त्यौहारों में से एक है। सैर का त्यौहार (सायर त्यौहार )अश्विन महीने की सक्रांति को मनाई जाती है। वास्तव में यह त्यौहार वर्षा ऋतु के खत्म होने और शरद् ऋतु के आगाज के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। इस समय खरीफ की फसलें पक जाती हैं और काटने का समय होता है, तो भगवान को धन्यवाद करने के लिए यह त्यौहार मनाते हैं। सैर के बाद ही खरीफ की फसलों की कटाई की जाती है। इस दिन “सैरी माता” को फसलों का अंश और मौसमी फल चढाए जाते हैं और साथ ही राखियाँ भी उतार कर सैरी माता को चढ़ाई जाती हैं।

सर्दी की शुरूआत:
ठंडे इलाकों में इसे सर्दी की शुरूआत माना जाता है और सर्दी की तैयारी शुरू हो जाती है। लोग सर्दियों के लिए अनाज और लकड़ियाँ जमा करके रख लेते हैं। सैर आते ही बहुत से त्यौहारों का आगाज़ हो जाता है। सैर के बाद दिवाली तक विभिन्न व्रत और त्यौहार मनाए जाते हैं।

बरसात की समाप्ति ,अन्न पुजा और पशुओ की खरीद फरोख्त :
इस उत्सव को मनाने के पीछे एक धारणा यह है कि प्राचीन समय में बरसात के मौसम में लोग दवाईयां उपलब्ध न होने के कारण कई बीमारियों व प्राकृतिकआपदाओं का शिकार हो जाते थे तथा जो लोग बच जाते थे वे अपने आप को भाग्यशाली समझते थे तथा बरसात के बाद पड़ने वाले इस उत्सव को ख़ुशी ख़ुशीमनाते थे। तब से लेकर आज तक इस उत्सव को बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता है।सायर का पर्व अनाज पूजा और बैलों की खरीद-फरोख्त के लिए मशहूर है। कृषि से जुड़ा यह पर्व ग्रामीण क्षेत्रों में ही नहीं, बल्कि शहरों में भी धूमधाम के साथ मनाया जाता है। बरसात के मौसम के बाद खेतों में फसलों के पकने और सर्दियों के लिए चारे की व्यवस्था किसान और पशु पालक सायर के त्योहार के बाद ही करते हैं।

देवालयों के खुलते हैं कपाट :
सायर का त्योहार बरसात की समाप्ति का भी सूचक माना जाता है। इस दिन भादों महीने का अंत होता है। भादों महीने के दौरान देवी-देवता डायनों से युद्ध लड़ने देवालयों से चले जाते हैं। वे सायर के दिन वापस अपने देवालयों में आ जाते हैं। इस दिन ग्रामीण क्षेत्रों के देवालयों में देवी-देवता के गूर देव खेल के माध्यम से लोगों को देव-डायन युद्ध का हाल बताते हैं और यह भी बताते हैं कि इसमें किस पक्ष की विजय हुई है। वहीं बरसात के मौसम में किस घर के प्राणी पर बुरी आत्माओं का साया पड़ा है। देवता का गूर इसके उपचार के बारे में भी बताता है। सायर के दिन ही नव दुल्हनें मायके से ससुराल लौट आती हैं। ऐसी मान्यता है कि भादों महीने के दौरान विवाह के पहले साल दुल्हन सास का मुंह नहीं देखती है। ऐसे में वह एक महीने के लिए अपने मायके चली जाती है।


सैर मनाने का तरीका
सैर मनाने का तरीका हर क्षेत्र का अलग-अलग है। जहां एक तरफ कुल्लू, मंडी,कांगड़ा आदि क्षेत्रों में सैर एक पारिवारिक त्यौहार के रूप में मनाई जाती है वहीं शिमला और सोलन में इसे सामुहिक तौर पर मनाया जाता है। हर क्षेत्र में सैर मनाने के अलग-अलग तरीके इस प्रकार हैं।

शिमला और सोलन में सायर उत्सव :
शिमला और सोलन में सैर सामुहिक रूप से मनाई जाती है। इस दिन जगह-जगह मेले लगते हैं और लोग इनमें उत्साह से शामिल होते हैं। ढोल-नगाड़े बजाए जाते हैं और अन्य लोकगीतों और लोकनृत्यों का आयोजन किया जाता है। शिमला के मशोबरा और सोलन के अर्की में “सांडों का युद्घ” कराया जाता है। यह लगभग स्पेन, पुर्तगाल और लैटिन अमेरिका में होने वाले युद्घ की तरह ही होते हैं। लोग मेलों में बर्तन, कपड़े खरीदते हैं। लोग अपने आस-पड़ोसियों और रिश्तेदारों को मिठाई और अखरोट बांटते हैं। घरों में अनेकों पकवान भी बनते हैं।सोलन के अर्की में सायर का जिला स्तरीय मेला होता है

कुल्लू और मंडी में सायर/सैर
:
कुल्लू में सैर को “सैरी-साजा” के रूप में मनाया जाता है। सैर के पिछली रात को चावल और मटन की दावत दी जाती है। अगले दिन “कुल देवता” को पूजा की जाती है जिसके लिए सुबह से ही तैयारी होना शुरु हो जाती है। साफ-सफाई करने के बाद नहा-धोकर हलवा तैयार किया जाता है और सबमें बांटा जाता है। यह त्यौहार रिश्तेदारों से मिलने-जुलने और उनके घर जाने का होता है।

एक-दूसरे को दुब जिसे स्थानीय भाषा में “जूब” कहते हैं, देकर उत्सव की बधाई दी जाती है। लोगों का मानना है कि इस दिन देवता स्वर्ग से धरती पर आते हैं और लोग ढोल-नगाड़ों के साथ उनका स्वागत करते हैं। वैसे भी हिमाचल में हर गांव का अपना एक देवी-देवता होता है तो लोग इस दिन उनकी पूजा और स्वागत करते हैं।



मंडी में भी सैर हर्षोल्लास के साथ मनाई जाती है। मंडी में इस दिन अखरोट खरीदे और बांटे जाते हैं। मंडी में सड़क किनारे जगह-जगह आप अखरोट बेचने वालों को देख सकते हैं।

सायर के त्योहार के दौरान अखरोट खेलने की परंपरा ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी है। गली चौराहे या फिर घर के आंगन के कोने पर इस खेल को खेला जाता है। इसमें खिलाड़ी जमीन पर बिखरे अखरोटों को दूर से निशाना लगाते हैं। अगर निशाना सही लगे तो अखरोट निशाना लगाने वाले के होते हैं। इस तरह यह खेल बच्चों, बूढ़े और नौजवानों में खासा लोकप्रिय है।



इसके अलावा कचौरी, सिड्डू, चिलड़ू, गुलगुले जैसे पकवान भी बनाए जाते हैं।बड़े-बुजुर्गों का आशीर्वाद लेने की भी परंपरा है। इसे स्थानीय बोली में द्रुब देना कहा जाता है। इसके लिए द्रुब देने वाला व्यक्ति अपने हाथ में पांच या सात अखरोट और दूब लेता है। जिसे बड़े बुजुर्गों के हाथ में देकर उनके पांव छूता है। वहीं बड़े बुजुर्ग भी द्रूव अपने कान में लगाकर आर्शीवाद देते हैं। अगर कोई सायर के पर्व पर बड़े बुजुर्गों को द्रुब न दे तो इसका बुरा माना जाता है। यहां तक कि छोटे-मोटे मन मुटाव भी द्रुब देने से मिट जाते हैं।

सायर/सैर और लोहड़ी को सगी बहने माना जाता है :
हिमाचल की कथाओ के अनुसार लोहड़ी और सैर दो सगी बहने थी , सैर की शादी गरीब घर में हुई , इसलिए उसे सितेम्बर महीने में मनाते है और उसके पकवान स्वादिस्ट तो होते है लेकिन अधिक महंगे नही होते , जबकि लोहड़ी की शादी अमीर घर में हुई थी , इसलिए शायद देसी घी ,चिवड़ा , मूंगफली ,खिचड़ी आदि के कई मिठाईयों के साथ इस त्यौहार को खूब धूमधाम से मनाया जाता है जिसकी शुरुआत एक महिना पहले ही लुकड़ीयो के साथ हो जाती है

कांगड़ा, हमीरपुर और बिलासपुर:
कांगड़ा, हमीरपुर और बिलासपुर में भी सैर मनाने का अलग प्रचलन है। सैर की पूजा के लिए एक दिन पहले से ही तैयारी शुरू कर दी जाती है और पूजा की थाली रात को ही सजा दी जाती है। हर सीज़न की फसलों का अंश थाली में सजाया जाता है।

उसके लिए गेहूँ को थाली में फैला दिया जाता है और उसके ऊपर मक्का, धान की बालियां, खीरा, अमरूद,गलगल आदि ऋतु फल रखे जाते हैं। हर फल के साथ उसके पत्ते भी पूजा में रखना शुभ माना जाता है। पहले समय में सैर वाले दिन गांव का नाई सुबह होने से पहले हर घर में सैरी माता की मूर्ति के साथ जाता था और लोग उसे अनाज, पैसै और सुहागी चढावे के रूप में देते थे। हालांकि अब त्यौहारों और उत्सवों को उस रूप में नहीं मनाया जाता है जिस तरह से पुराने लोग मनाते थे, परन्तु फिर भी गांवों में अभी भी लोगो ने बहुत हद तक परंपराओं को संजोकर रखा हुआ है। अब लोग सैरी माता की जगह गणेशजी की मूर्ति की पूजा करते हैं और अब नाई लोगों के घर नहीं जाते हैं।

दिन में छः-सात पकवान बनाए जाते हैं जिनमें पतरोड़े, पकोड़ू और भटूरू जरूर होते हैं। इसके अलावा खीर, गुलगुले, चिलड़ू आदि पकवान भी बनाए जाते हैं। ये पकवान एक थाली में सजाकर आस-पड़ोस और रिश्तेदारों में बांटे जाते हैं और उनके घर से भी पकवान लिए जाते हैं। अगले दिन धान के खेतों में गलगल फेंके जाते हैं और अगले वर्ष अच्छी फसल के लिए प्रार्थना की जाती है।

यह त्यौहार एक तरह से बरसात में बारिश के कारण एक-दूसरे से न मिल पाने के कारण मिलने का बहाना भी हो जाता है। जो लड़कियाँ “काला महीना” यानि भादों में अपने मायके आई होती हैं वो वापिस अपने ससुराल चली जाती हैं। ये छोटे-छोटे त्यौहार और उत्सव लोगों को आपस में जोड़े रखते हैं और समय-समय पर मिलने का एक अच्छा बहाना भी है। आशा है हमारी ये परंपराएं ऐसे ही चलती रहें और लोग यूं ही हर्षोल्लास के साथ त्यौहार मनाते रहें।



सौजन्य–प्रियंका शर्मा,बिलासपुर हिमाचल प्रदेश ( एडमिन हिमाचली रिश्ता डॉट कॉम )

Note :यह लेख अपने परिवार, दोस्तों-रिश्तेदारों और व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर लिखा है। यदि इस लेख में अगर कहीं कोई त्रुटि रह गई हो या इस त्यौहार के बारे में और जानकारी हो तो कृपया अपने सुझाव अवश्य दें। इससे हम अपनी परंपराओं और रीति-रिवाजों को पूरी दुनिया के सामने ला सकते हैं और साथ ही भूलती जा रही संस्कृति को जीवित रख सकते हैं।



Happy
Happy
0 %
Sad
Sad
0 %
Excited
Excited
0 %
Sleepy
Sleepy
0 %
Angry
Angry
0 %
Surprise
Surprise
0 %

Average Rating

5 Star
0%
4 Star
0%
3 Star
0%
2 Star
0%
1 Star
0%

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Previous post अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिलाने के लिए हाटी समुदाय ने किया मुख्यमंत्री का अभिनंदन
Next post शहरी विकास मंत्री ने स्वर्गीय नरेन्द्र बरागटा की जयंती के उपलक्ष्य पर अटल विश्राम स्थल कोटखाई में आयोजित कार्यक्रम में अर्पित की पुष्पांजलि
error: Content is protected !!