संपादकीय विधान सभा २०२२
चुनावी दंगल नजदीक आ रहा है। ढोल नगाड़े बजने शुरू हो गए है।आया राम गया राम अभी से अपने बिल से बाहर निकलने शुरू हो गए है,बड़े श्याने दिग्गजो का अभी प्रकट होना बाकी है। जनता से दूर करीब पांच साल के बाद अब दुबारा चुनावी वादों का पिटारा खुलने वाला है। बेचारी अभागी जनता करे तो क्या करे। खुद चुनाव लडने का साहस नहीं है होगा भी कैसे ,यह छल कपट, एक दूसरे की टांग खींचना और निम्मन स्तर तक वो जा भी कैसे सकता है। उसे तो वोट करना है उसके बाद पांच साल चुप बैठना है पट्टी बांधे बेबस आंखो से ताकते हुए।
सही मायने में लोक तंत्र का मतलब क्या है यह अधिकांश लोग को अभी भाई मालूम नही है,अपने अधिकारों का ज्ञान अभी ये लोगो से कोसो दूर है। यह राजनेता जो किसी भी दल से संबंध रखते हो वो जनता को जानने भी नही देना चाहते है। आम आदमी से चुनाव लडना एक मृग तृष्णा है क्योंकि धन और बाहुबल आम आदमी के झोली में नही है। बड़े बड़े वादे आदर सत्कार किए जाएंगे ,लोक लुभावन वायदे किए ज्यांगे हमारी उमंगे और उम्मीदें जागेंगी फिर पांच साल हमारे और आपके चक्कर होंगे इनके चारो ओर। महंगाई की मार,रोजगार का रोना,विकास के वादे,न्याय का वायदा ,आम जानता को डंक मारता रहेगा। चारो तरफ से कर (tax) ki मारो मार, अब तो ये कर डायन मारे जात है। यह तो सदियों से चलता आया है और चलता रहेगा।
आज के लिए इतना ही आगे क्रमश:। आपका अपना साझीदार। तरुण मल्होत्रा।
Average Rating