चुनावी वादों को पूरा करने के लिए कहां से आएगा पैसा, राजनीतिक दलों के लिए खुलासा करना हो सकता है अनिवार्य

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चुनावी वादों को पूरा करने के लिए कहां से आएगा पैसा, राजनीतिक दलों के लिए खुलासा करना हो सकता है अनिवार्य। गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव संपन्न होने के बाद भारत के चुनाव आयोग (Election Commission of India) द्वारा पार्टी के घोषणापत्र के दिशा-निर्देशों के विवादास्पद मुद्दे को उठाए जाने की संभावना है।

कहा जा रहा है कि राजनीतिक दलों के लिए एक स्टैंडर्ड फॉर्मेट में चुनावी वादों के लिए आवश्यक धनराशि का विवरण देना अनिवार्य हो जाए. इकनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रस्तावित दिशा-निर्देशों के अनुसार, पार्टियों को वादा-वार खर्च, लक्षित लाभार्थियों और उनके घोषणापत्र के वादों की फंडिंग के भावी या नियत स्रोतों पर एक स्टैंडर्ड डिक्लेरेशन करना होगा.

चुनावी वादों पर पारदर्शिता के अलावा, स्टैंडर्ड फॉर्मेट में सत्तारूढ़ पार्टी को अपने फाइनेंस की स्थिति पर एक रिपोर्ट कार्ड पेश करने की भी जरूरत होगी क्योंकि यह फिर से चुनाव चाहती है. अक्टूबर में, पोल पैनल ने घोषणा पत्र के दिशानिर्देशों में प्रस्तावित किया था कि वह राजनीतिक दलों द्वारा किए गए चुनावी वादों पर वित्तीय पारदर्शिता बढ़ाने के लिए आदर्श आचार संहिता में संशोधन करने की योजना बना रहा है. चुनाव आयोग के अनुसार, यह मतदाताओं को एक सूचित निर्णय लेने में मदद करेगा. मेघालय, नगालैंड, त्रिपुरा और कर्नाटक में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में नए दिशा-निर्देशों को लागू किया जा सकता है.

लोकलुभावनवाद के खतरे

रिपोर्ट में कहा गया है कि गुजरात और हिमाचल प्रदेश में हाल के विधानसभा चुनावों की घोषणा करते हुए मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने इशारा किया था कि लोकलुभावनवाद के कारण दुनिया भर में बड़ी संख्या में लोकतंत्रों को गंभीर मैक्रो-इकनॉमिक संकटों का सामना करना पड़ रहा है. उन्होंने कहा था कि चुनाव आयोग चुनावी वादों के आर्थिक पहलुओं पर मतदाता पारदर्शिता की पेशकश करने की पार्टियों की जिम्मेदारी के साथ उनके लोकतांत्रिक अधिकार को संतुलित करना चाहता है.

लगभग 60 पार्टियों के समक्ष रखा था प्रस्ताव

चुनाव आयोग ने अक्टूबर में लगभग 60 मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय और राज्यीय राजनीतिक दलों को एक प्रस्ताव सर्कुलेट किया था. रिपोर्ट्स के अनुसार इस पर केवल 8 पार्टियों ने अपने विचार प्रस्तुत किए हैं, 6 ने प्रस्ताव के खिलाफ और 2 ने इसके पक्ष में. कांग्रेस, सीपीएम, सीपीआई, डीएमके, आम आदमी पार्टी और AIMIM ने कथित तौर पर, पार्टियों के लिए प्रत्येक घोषणापत्र वादों की वित्तीय व्यवहार्यता की घोषणा किए जाने को अनिवार्य करने के कदम का विरोध किया है. उन्होंने चुनावी वादों का बजट बनाने की मांग करने की चुनाव आयोग की शक्ति पर भी सवाल उठाया.

कहा जा रहा है कि शिरोमणि अकाली दल ने कल्याणकारी उपायों का वादा करने के पार्टियों के अधिकारों का समर्थन किया है, लेकिन साथ ही साथ उनके फंडिंग सोर्स के प्रकटीकरण से समर्थित नहीं होने वाली मुफ्त उपहारों का विरोध किया है.

Freebie का मुद्दा…

हालांकि, चुनाव आयोग ने स्पष्ट रूप से “फ्रीबी” (Freebie) को परिभाषित करने या इसे चुनावी वादे से अलग करने के मुद्दे में शामिल होने से परहेज नहीं किया है. इस साल जुलाई में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वोट जीतने के लिए राजनीतिक दलों द्वारा अपनाई जाने वाली मुफ्त उपहारों की संस्कृति का मुद्दा उठाया था, उन्होंने इसे “रेवड़ी” कहा था. उनकी टिप्पणी ने विपक्ष के दलों, विशेष रूप से AAP और DMK के साथ एक सार्वजनिक बहस छेड़ दी, जिसमें प्रधानमंत्री पर, गैर-भाजपा दलों द्वारा वादा की गई कल्याणकारी योजनाओं और स्टेट सब्सिडी को टार्गेट करने का आरोप लगाया गया. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई, जिसमें इस मुद्दे से निपटने के तरीके सुझाने के लिए एक समिति के गठन का प्रस्ताव रखा गया था.

Source : “Yourstory हिंदी”

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