क्या वरुण गांधी का राजनीतिक हृदय परिवर्तन हो गया है?।भाजपा सांसद वरुण गांधी, जिन पर 2009 में हिंदू-मुसलमान की राजनीति करने और भड़काऊ भाषण देने का आरोप लगा था, अचानक 14 सालों बाद उनका हृदय परिवर्तन हो गया है। वरुण अब हिंदू-मुसलमान की सियासत यानी भाजपा के हिंदुत्व एजेंडे के खिलाफ हो गये हैं।
वह मीडिया को भी आड़े हाथ लेते हुए कहते हैं कि बेरोजगारी, महंगाई एवं किसानों की बदहाली बड़ी समस्या है, लेकिन कोई अखबार-चैनल इन मुद्दों पर बात नहीं कर रहा है। सब केवल हिंदू-मुस्लिम कर रहे हैं, जाति-पाति कर रहे हैं, तोते की तरह।
वरुण गांधी ने ये बातें पीलीभीत की एक सभा में कही हैं। वह कहते हैं कि मैं ना तो कांग्रेस के खिलाफ हूं और ना ही नेहरू के खिलाफ हूं। देश में जोड़ने की राजनीति होनी चाहिए, तोड़ने की नहीं। ऐसी राजनीति नहीं करनी चाहिए जिससे देश में गृहयुद्ध जैसा माहौल हो जाये। हमें ऐसी राजनीति करनी हैं, जिससे लोगों की तरक्की हो, ऐसी नहीं जो लोगों को दबने पर मजबूर कर दे। यह बयान इसलिये महत्वपूर्ण है कि 2019 में वरुण अपने परिवार के खिलाफ भी बयान दे चुके हैं। इस नये बयान को भाजपा को घेरने के साथ नए राजनीतिक कदम का संकेत माना जा रहा है, पर उससे बड़ा सवाल है कि उनका राजनैतिक भविष्य क्या रहने वाला है।
वरुण के बयान के अलग मायने इसलिये भी निकाले जा रहे हैं कि उनके चचेरे भाई और कांग्रेस नेता राहुल गांधी इस समय मोदी सरकार की नीतियों के खिलाफ भारत जोड़ो यात्रा निकाल रहे हैं। वह भी ऐसे मुद्दों को लेकर मोदी सरकार पर आक्रामक हैं। सवाल उठ रहे हैं कि क्या वरुण गांधी कांग्रेस से नजदीकियां बढ़ा रहे हैं? क्या वरुण गांधी कांग्रेस ज्वाइन कर सकते हैं?
बड़ा सवाल है कि वरुण गांधी का राजनीतिक भविष्य क्या होगा? मेनका गांधी उम्र के आखिरी पड़ाव पर हैं, जहां 2024 के बाद उनके चुनाव लड़ने की संभावनाएं बहुत कम हैं, लेकिन वरुण क्या करेंगे? तीन जनवरी को राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा यूपी में प्रवेश करने जा रही है, तो क्या वरुण गांधी अपने चचेरे भाई की यात्रा में शामिल होकर एक नई राजनीतिक पारी की पटकथा लिखेंगे?
कांग्रेस या राहुल गांधी की तरफ से खुलकर वरुण का स्वागत किये जाने के कोई संकेत नहीं है। ऐसे में इस तरह के बयानों के बाद वरुण गांधी के लिये भविष्य की राजनीति के रास्ते बहुत संकरे हो जाते हैं। उनके पास निर्दलीय चुनाव लड़ने के अलावा सपा या रालोद के साथ जाने का विकल्प है। अखिलेश यादव एवं जयंत चौधरी से उनके संबंध ठीक रहे हैं, लेकिन बड़ा सवाल है कि क्या केवल सांसद बनने के लिये ही वरुण गांधी सपा या रालोद के साथ जायेंगे?
भाजपा में मोदी-शाह युग के आने से पहले वरुण गांधी के पास भाजपा में पर्याप्त विकल्प थे, लेकिन अब स्थितियां बदल चुकी हैं। जब 2014 में बीजेपी ने मेनका गांधी को केंद्र में मंत्री बनाया था और वरुण गांधी राष्ट्रीय महासचिव होने के साथ बंगाल जैसे राज्य के प्रभारी भी थे, तब भाजपा के अध्यक्ष राजनाथ सिंह हुआ करते थे। भाजपा की कमान अमित शाह के हाथ में आने के बाद मेनका गांधी और वरुण गांधी के लिये भाजपा में मौके सीमित होते चले गये।
वर्ष 2016 में जब इलाहाबाद में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हुई तब वरुण और उनके समर्थकों ने अपनी ताकत दिखाने का प्रयास किया था, जो अमित शाह को रास नहीं आया। 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले वरुण गांधी खुद को यूपी के मुख्यमंत्री की दौड़ में पेश कर रहे थे। इस तरह के घटनाक्रम के बाद से ही वरुण का भाजपा में प्रभाव सीमित होने लगा। रही सही कसर रक्षा सौदे से जुड़े हनी ट्रैप में नाम उछलने से पूरा हो गया।
इन घटनाक्रमों के बाद वरुण तथा मेनका को भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी से भी बाहर कर दिया गया। दरअसल, अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में उत्तर प्रदेश में सोनिया गांधी एवं राहुल गांधी को काउंटर करने के लिये मेनका गांधी एवं वरुण गांधी भाजपा के लिये लाभकारी सौदा थे। मोदी-शाह युग में अब मेनका और वरुण गांधी की उतनी प्रासंगिकता नहीं रह गई है क्योंकि कांग्रेस की खुद स्थिति उतनी मजबूत नहीं है, जो अटल जी के दौर में हुआ करती थी।
भाजपा 2019 में ही मेनका और वरुण में किसी एक को चुनाव लड़ाना चाहती थी, लेकिन संघ कनेक्शन और सीट की अदला-बदली की शर्त पर बात बन गई। यह टिकट की मजबूरी ही थी कि 2019 के चुनाव से पहले वरूण गांधी ने मीडिया को ऐसा बयान दिया, जिसके बारे में माना जाता है कि वरुण गांधी ऐसी बातों से बचते हैं। वरुण ने तब कहा था कि मेरे परिवार में भी कुछ लोग पीएम रहे हैं, लेकिन जो सम्मान मोदी जी ने देश को दिलाया है, वो लंबे समय से किसी ने देश को नहीं दिलाया।
मेनका गांधी तो कांग्रेस और गांधी परिवार के खिलाफ शुरू से मुखर रही हैं, लेकिन वरुण इस तरह की बात करने से शुरू से बचते रहे हैं, क्योंकि राहुल और प्रियंका से उनके निजी संबंध अच्छे रहे हैं। सियासी हलकों में कहा गया कि वह टिकट के लिये शीर्ष नेतृत्व के दबाव में अपने परिवार के खिलाफ बोलने को मजबूर हुए। 2019 के बाद भाजपा में मेनका गांधी एवं वरुण गांधी की अहमियत लगातार कम होती चली गई। मेनका गांधी ने तो धैर्य दिखाया, लेकिन वरुण लगातार भाजपा के खिलाफ मुखर होते चले गये। अपने बयानों से कई बार भाजपा सरकार एवं नेतृत्व को वरुण ने असहज किया।
भाजपा ने अब तक वरुण के किसी भी बयान को गंभीरता से नहीं लिया है, और ना ही उनकी किसी बात का जवाब दिया है। भाजपा ने उनको अहमियत ही नहीं दी, जिसने वरुण को और ज्यादा परेशान किया है। पीलीभीत की रैली में केंद्र की मोदी सरकार पर तीखे हमले के बाद अब यह सवाल उठने लगा है कि वरुण गांधी किस विकल्प की ओर जायेंगे?
सपा, रालोद के बाद एक विकल्प तृणमूल कांग्रेस और ममता बनर्जी का बचता है। भाजपा और कांग्रेस से नाराज नेताओं की शरण स्थली तृणमूल बनती जा रही है, तो सवाल है कि क्या शत्रुघ्न सिन्हा, यशवंत सिन्हा के नक्शेकदम पर चलते हुए वरुण गांधी भी तृणमूल से जुड़कर भाजपा को सबक सिखायें।
(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।
Source : “OneIndia”
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