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कलम थामने वाले के हाथों में AK-47, कैसे युद्ध ने बदल दी यूक्रेनी फिल्म लेखक की कहानी - ग्रेटवे न्यूज नेटवर्क

कलम थामने वाले के हाथों में AK-47, कैसे युद्ध ने बदल दी यूक्रेनी फिल्म लेखक की कहानी

कलम थामने वाले के हाथों में AK-47, कैसे युद्ध ने बदल दी यूक्रेनी फिल्म लेखक की कहानी। मैंने युद्ध सिर्फ फिल्मों तक देखा था. ये बहुत ही भयावह होता है. मैंने तो कभी हथियार को हाथ तक नहीं लगाया था. मैं युद्ध के नाम से ही खौफज़दा हो जाता था. मैं इससे इतना दूर भागा जहां तक भाग सकता था मगर सवाल ये था कि कहां तक भाग पाऊंगा।

जब मेरे घर में ही वॉर छिड़ गया तो अब कोई भी विकल्प नहीं बचे थे…. ये शब्द हैं यूक्रेनी फिल्म समीक्षक एंटोन फिलाटोव के. जोकि युद्ध से पहले फिल्म क्रिटिक हुआ करते थे मगर अब उनके हाथों में AK-47 रायफल है. फरवरी 2022 से पहले यूक्रेन एक खूबसूरत देश था. वर्ल्ड हेरिटेज का नायाब नमूना भी. सैलानियों से सालभर भरा रहता था. मगर रूस के हमलों के बाद यहां हर जगह मौत का डर, दहशत और बंजर जमीन की है.

युद्ध शब्द ही ऐसा है जिसकी कल्पना से रूह कांप उठती है. इसके प्रभाव से कोई भी नहीं बच पाता. यूक्रेनी फिल्म समीक्षक एंटोन फिलाटोव ने हथियार को कभी हाथ भी नहीं लगाया था. लेकिन इतने सारे अन्य यूक्रेनियनों के साथ अब वो रूस से लड़ाई कर रहा है. वो कहता है कि उसका जीवन अब वास्तविक जीवन का युद्ध फिल्म बन गया. वह रूसी आक्रमणकारियों के साथ यूक्रेन के युद्ध के फ्रंट लाइन में तैनात है. अगस्त के अंत तक वो युद्ध-ग्रस्त डोनबास क्षेत्र के रोज़डोलिवका गांव में तैनात था. यह एक ऐसा स्थान हुआ करता था जहां बागों में अंगूर की लताएं होतीं थीं. खूबसूरत झोपड़ीनुमा मकान होते थे. घरों में छतें होती थीं. फिर गोलाबारी शुरू हुई.


पास की नजर कमजोर

न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट में फिलाटोव की कहानी प्रकाशित हुई है. 34 साल के फिलाटोव अभी भी आंखों पर मोटा चश्मा पहने हुए हैं. ऐसा महसूस कर रहे हैं जैसे वो कोई फिल्म लिखने की तैयारी करने गए हों. जहां बम,गोला,बारूद, मिसाइल बस एक दिखावा हैं. लेकिन ये सच नहीं है. सच तो ये है कि उसके देश पर हमला हो गया. और ये कोई फिल्म नहीं है बल्कि हकीकत है. फिलाटोव की पास की नजरें ठीक नहीं हैं. उसकी पत्नी हैरान थी कि कैसे उसे युद्ध में भेज दिया गया उसको तो नजदीक का दिखता भी नहीं. जैसे ही रूसी बम उसके पास में फटे वो भागकर सेफहाउस में घुस गया.

युद्ध में भी लिखना नहीं छोड़ा

इन सब के बीच भी उसने लिखना नहीं छोड़ा. जैसे ही लड़ाई से थोड़ा भी समय मिलता वो अपनी आर्मी वाली पोशाक की जेब से एक डायरी और कलम निकालकर लिखने लगता. यूक्रेन युद्ध अब उसके लिए कहानी का नया मैटेरियल बन गया है.क्योंकि वह अपने द्वारा अनुभव किए जा रहे भय, दुःख, क्रोध और चिंता में ही उलझ जाता और अपने आस-पास की छोटी-छोटी चीज़ों में अर्थ खोजने की कोशिश करता है. जैसे सोते समय चूहे उस पर झपटते हैं.

हाल ही में एक टेक्स्ट मैसेज में उन्होंने लिखा:

एक बार भारी हमले के दौरान मैं एक डगआउट में बैठ गया और पृथ्वी को कांपते देखा. देवदार के ऊंचे पेड़ों की जड़ें हमारे शेल्टर हाउस की दीवार से चिपकी हुई हैं. उनमें से एक वृक्ष का रस बह निकला. वह पारे की तरह चमक रहा था मगर ऐसा लगा कि आंसुओं के समान था. कुछ महीने बाद मुझे याद नहीं है कि उस शाम कितने विस्फोट हुए थे या कौन से हथियार दागे गए थे। लेकिन मुझे एक छवि स्पष्ट रूप से याद है. कैसे पृथ्वी भारी, ठंडे आंसुओं से रोई. इलियड के बाद से युद्ध ने हमेशा उल्लेखनीय लेखन को उकसाया है. नॉर्मन मेलर ने द्वितीय विश्व युद्ध में प्रशांत क्षेत्र में हार्वर्ड से बाहर एक युवा के रूप में सेवा करने के बाद ‘द नेकेड एंड द डेड’ प्रकाशित किया. बाओ निन्ह ने वियतनाम युद्ध का शायद सबसे दुखद, सबसे पीड़ादायक लेख लिखा, जिसमें वह ‘द सोर्रो ऑफ वॉर’ में उत्तर वियतनामी पैदल सैनिक के रूप में बाल-बाल बच गए.

फेसबुक पर फिलाटोव के ब्लॉग पोस्ट इसका 21वीं सदी का संस्करण हैं और उन्होंने उन्हें एक बढ़ते हुए दर्शक वर्ग में ला दिया है. एक अनुभवी यूक्रेनी फिल्म समीक्षक एलेक्जेंडर गुसेव ने कहा कि जो लड़ाई से पहले मिस्टर फिलाटोव के फिल्म लेखन के प्रशंसक थे और तब से उनके युद्धकालीन ब्लॉगिंग को पढ़ रहे हैं. वह तीन भाषाओं में लिखते हैं, यूक्रेनी, रूसी और अंग्रेजी – और 2010 के दशक में, जब यूक्रेन के फिल्म उद्योग ने उड़ान भरी तो मिस्टर फिलाटोव का करियर भी. उन्होंने हजारों फिल्में देखीं, सैकड़ों समीक्षाएं लिखीं और फिल्म महोत्सव के निर्णायक मंडल में बैठने के लिए दुनिया की यात्रा की.

2020 में बंद हो गया फिल्मों का काम

2020 के कोविड महामारी के कारण देश में सिनेमाघर बंद हो गए और इसी तरह कई यूक्रेनी प्रकाशन भी बंद हो गए. उनकी पत्नी ऐलेना फिलाटोवा भी एक पत्रकार हैं और अपने परिवार का समर्थन करने में मदद करने के लिए वह कभी-कभी समीक्षा लिखते हुए नेस्ले के लिए सामग्री संपादक बन गईं. 24 फरवरी को लगभग 5:30 बजे उनके छोटे बेटे प्लैटन ने कीव उपनगरों में अपने अपार्टमेंट में एक खिड़की से ऊपर की ओर देखा और नीचे सड़क पर देखा. कारें भाग रही थीं. बम धमाकों से शहर हिल रहा था और छोटा लड़का रोने लगा. रूसियों ने आक्रमण किया था.

खुद से सैनिक बनने की जताई इच्छा

आवश्यकतानुसार मिस्टर फिलाटोव ने सैन्य ड्यूटी के लिए सूचना दी. यह सोचकर कि उन्हें कभी नहीं चुना जाएगा, लेकिन कुछ हफ्ते बाद, वह डोनबास के लिए सैनिकों से भरी एक ट्रेन में सवार हो गए, जहां लड़ाई सबसे भयंकर रही है. फिलाटोव के साथ एक फिल्म समारोह जूरी में काम करने वाले नॉर्वेजियन फिल्म समीक्षक ब्रिट सोरेनसेन ने कहा कि यह विरोधाभास है कि उनके जैसा एक शांत, शांतिपूर्ण व्यक्ति इस तरह की स्थिति में मजबूर हो जाता है. तथ्य यह है कि उसे अपने देश के सर्वश्रेष्ठ के लिए अपनी बौद्धिक क्षमता का उपयोग करने के बजाय अपने देश के लिए शारीरिक रूप से लड़ना पड़ता है.

पहली बार रूसी सेना से हुई भिड़ंत

एक साधारण सैनिक के रूप में फिलाटोव का सामने का पहला काम सोने के लिए गड्ढा खोदना था. चट्टान जैसी मिट्टी इतनी सख्त थी कि उन्हें एक कुल्हाड़ी का इस्तेमाल करना पड़ा. कुछ इंच काटने में ही एक घंटा लग गया. उन्हें उस जगह में रहना पसंद नहीं था. उन्होंने बताया कि आधी रात के वक्त कुछ मकड़ियाँ आपकी नाक में घुसने की कोशिश करती हैं. लेकिन वह ज्यादा देर नहीं रुके. लड़ाई के उस चरण में उन्हें और उनकी इकाई को बार-बार पीछे धकेला जा रहा था. पहली बार इस वसंत और गर्मियों में डोनबास में यूक्रेनी सेना के संघर्षों के गवाह बने.

Source : “TV9 Bharatvarsh”

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