क्यों नहीं आते विदेशी विद्यार्थी भारत।

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क्यों नहीं आते विदेशी विद्यार्थी भारत।च्च शिक्षा के लिए देश और संस्थान का चयन आमतौर पर संबंधित देश में जीवन की गुणवत्ता, पढ़ाई करने व रहने के खर्च, शिक्षा के स्तर और यहां से पहले पढ़ाई कर चुके विद्यार्थियों की राय पर निर्भर करता है।यह स्वीकार करने में हमें हिचक नहीं होनी चाहिए कि जीवन की गुणवत्ता के मामले में भारत विकसित देशों की बराबरी नहीं कर सकता।

कुछ दिनों पहले खबर आई थी कि इस वर्ष पढ़ाई के लिए भारत से अमेरिका जाने वाले विद्यार्थियों की संख्या एक नई ऊंचाई तक पहुंच गई है। इस साल (2022) कुल लगभग बयासी हजार विद्यार्थियों ने उच्च शिक्षा के लिए अमेरिकी शिक्षण संस्थानों में दाखिला लिया है। भारत से विद्यार्थी अन्य देशों खासतौर से आस्ट्रेलिया, कनाडा, ब्रिटेन, न्यूजीलैंड आदि में भी पढ़ने के लिए जाते हैं। अभी तक के आंकड़ों के अनुसार विदेश में अध्ययनरत भारतीय विद्यार्थियों की संख्या ग्यारह से बारह लाख के बीच है और अनुमान है कि वर्ष 2024 तक यह अठारह लाख से ऊपर निकल जाएगी।

इस खबर को दूसरी खबर के साथ देखने की भी जरूरत है। इस साल अगस्त में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने घोषणा की कि देश के विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थानों को उनके स्नातक व स्नातकोत्तर कार्यक्रमों में विदेशी विद्यार्थियों के लिए पच्चीस फीसद तक अतिरिक्त सीटें उपलब्ध कराने की अनुमति होगी। इन सीटों के लिए कोई प्रवेश परीक्षा आयोजित नहीं की जाएगी।

निश्चित रूप से हमारा देश बड़ी संख्या में विदेशी विद्यार्थियों को आकर्षित करना चाहता है। लेकिन वास्तविकता यह है कि दुनिया का दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाला देश जो अब विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का दावा कर रहा है, उच्च शिक्षा के लिए वैश्विक मंच पर अपनी जगह बनाने में कामयाब नहीं हो पाया है। साल 2021 में केवल 23,439 विद्यार्थी विदेश से भारत पढ़ने आए थे।

इस समय देश में विदेशी विद्यार्थियों की कुल संख्या पचास हजार से ज्यादा नहीं है। वर्ष 2020 में जारी राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भारतीय उच्च शिक्षा के अंतरराष्ट्रीयकरण की बात कही गई है। यहां आशय भारतीय उच्च शिक्षण संस्थानों को उच्च शिक्षा हेतु वरीय केंद्र बनाने और इनमें विदेश से आए विद्यार्थियों की संख्या बढ़ाने से है। इससे शिक्षण संस्थानों की आय में तो वृद्धि होगी ही, सांस्कृतिक आदान-प्रदान भी बढ़ेगा।

यह विचारणीय विषय है कि पढ़ाई के लिए भारत से बाहर जाने वालों की संख्या की तुलना में भारत को उच्च शिक्षा के लिए चुनने वालों की संख्या इतना कम क्यों है? एक कारण तो साफ है कि अगर हम आइआइटी, आइआइएम और इंडियन इंस्टीट्यूट आफ साइंस जैसे संस्थानों को छोड़ दें, तो भारत के उच्च शिक्षण स्थानों का दुनिया में कोई खास नाम नहीं है। इसके अलावा ढंग के संस्थानों में प्रवेश मिलने की राह भी काफी मुश्किल है। नौकरशाही का आलम उच्च शिक्षा जगत में भी छाया हुआ है। कुछ निजी विश्वविद्यालय भले ही आसानी से प्रवेश दे देते हों, पर उन में से बहुतों की गुणवत्ता पर प्रश्न चिह्न लगे हैं।
एक उदाहरण से यह बात स्पष्ट होगी। देश में ऐसे विद्यार्थियों की संख्या काफी बढ़ी है जो चिकित्सा की पढ़ाई के लिए एमबीबीएस में प्रवेश लेना चाहते हैं और उनमें से बहुतों में इस हेतु आवश्यक प्रतिभा भी है, पर सीटें कम होने की वजह से इन विद्यार्थियों में से कम को ही प्रवेश मिल पाता है, शेष अपना रास्ता बदल लेते हैं या फिर चीन, यूक्रेन, रूस जैसे देशों का रुख करते हैं जहां खर्च बहुत ज्यादा नहीं है और प्रवेश आसानी से मिल जाता है।

आइआइटी और आइआइएम में भी जितने लोग आवेदन करते हैं, उसमें भी बहुत ही कम छात्रों को प्रवेश मिल पाता है। हालांकि विगत वर्षों में इन संस्थानों के नए केंद्र भी खोले गए हैं। कुल मिला कर यह कहा जा सकता है कि भारत में गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा प्राप्त करने की राह उतनी आसान नहीं है जितनी कि होनी चाहिए। कुछेक सरकारी संस्थानों को छोड़ दें तो उच्च शिक्षा अब पहले की अपेक्षा काफी महंगी भी हो चली है।

भारत को आजादी मिलने से पहले और इसके ठीक बाद के दशकों में भी लोग पढ़ाई करने भारत से विदेश जाते थे। पर तब यह संख्या बेहद कम हुआ करती थी। आज की स्थिति बिल्कुल भिन्न है। तमाम मध्यवर्गीय और उच्च मध्यम वर्गीय परिवार अपने बच्चों को विदेश में पढ़ाने का सपना रखते हैं। यहां सभी का दृष्टिकोण एक जैसा नहीं होता। कुछ परिवारों या विद्यार्थियों के लिए यह फैशन और सामाजिक प्रतिष्ठा की बात गई है।

कुछ विद्यार्थी इस उम्मीद से जाते हैं कि उन्हें आला दर्जे की शिक्षा मिलेगी और वे इस पढ़ाई के बल पर शानदार भविष्य बना पाएंगे। इन सबसे अलग एक बड़ा वर्ग उन विद्यार्थियों का है जो विदेश में पढ़ाई का रास्ता इसलिए चुनते हैं कि उन्हें इससे विदेश में रहने और कमाने का अवसर मिल जाए। भारत से विकसित देशों को जाने वाले विद्यार्थियों में से बहुत कम ही वापस भारत का रुख करते हैं। प्रवासी कामगारों के लिए कुछ देशों की नीतियां सख्त हैं और कुछ की उदार। फिर भी रोजगार के अवसरों की उपलब्धता की दृष्टि से इन देशों में हालात भारत से बहुत ज्यादा बेहतर हैं।

फिलहाल भारत में पढ़ाई के लिए बाहर से आने वाले विद्यार्थी अफ्रीकी तथा अरब देशों के हैं जिनमें उच्च शिक्षा का ढांचा बहुत ज्यादा मजबूत नहीं है। करीब के एशियाई देशों नेपाल, भूटान और बांग्लादेश के विद्यार्थियों के लिए भी भारत उच्च शिक्षा हेतु प्राथमिकता प्राप्त देश है। पर इन सारे देशों और बाकी देशों को मिला कर भी भारत में विदेशी विद्यार्थियों की संख्या कम ही है। इस प्रकार देश में विदेशी विद्यार्थियों का देश के विद्यार्थियों से अनुपात बहुत थोड़ा है।

उच्च शिक्षा के लिए देश और संस्थान का चयन आमतौर पर संबंधित देश में जीवन की गुणवत्ता, पढ़ाई करने व रहने के खर्च, शिक्षा के स्तर तथा यहां से पहले पढ़ाई कर चुके विद्यार्थियों की राय पर निर्भर करता है। यह स्वीकार करने में हमें हिचक नहीं होनी चाहिए कि जीवन की गुणवत्ता के मामले में भारत विकसित देशों की बराबरी नहीं कर सकता। इस आधार पर कह सकते हैं कि विदेश के वे विद्यार्थी जो अमेरिका आदि जैसे देशों में पढ़ाई का खर्च उठा सकते हैं, वे उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए भारत को शायद ही वरीयता देंगे।

विदेशी विद्यार्थियों को आकर्षित करने के लिए 2016 में सरकार ने ‘स्टडी इन इंडिया’ नाम के कार्यक्रम की घोषणा की थी, जिसे 2018 में लागू किया गया था। इस कार्यक्रम को कोई अपेक्षित प्रतिक्रिया नहीं मिली। सिर्फ अतिरिक्त क्षमता उपलब्ध कराने से विदेशी विद्यार्थी भारत आने लगेंगे, इसकी संभावना कम ही है। अधिक से अधिक विदेशी विद्यार्थी भारत पढ़ने आएं, इसके लिए एक व्यापक रणनीति बनानी होगी और इसके लिए हमें उन देशों तथा संस्थानों से सीखना होगा जो इस मामले में अपनी पहचान पहले ही बना चुके हैं।

एक और दृष्टिकोण यह कहता है कि पहले हम अपने ही देश के विद्यार्थियों के लिए अपनी उच्च शिक्षा व्यवस्था को दुरुस्त करें। थोड़ी देर के लिए बाजार शब्द के प्रयोग की छूट लेते हुए हम कह सकते हैं कि हमारे देश में उच्च शिक्षा का बाजार जितना बड़ा है, उसमें विदेशी विद्यार्थियों का योगदान फिलहाल बहुत ज्यादा नहीं जोड़ सकता। देश से जितनी संख्या में विद्यार्थी बाहर पढ़ने के लिए जा रहे हैं, उन्हीं में से अधिकांश को हम अपने देश में ही अत्यधिक गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देकर रोक सकें तो देश को उनकी प्रतिभा का लाभ मिलेगा और विदेशी मुद्रा भी बचेगी। साथ-साथ हमें विदेशी विद्यार्थियों को आकर्षित करने के प्रयास जारी रखने चाहिए।

http://dhunt.in/CqNnn?s=a&uu=0x5f088b84e733753e&ss=pd Source : “जनसत्ता ”

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